Tuesday, August 28, 2012

निरुत्तर


ज़िन्दगी की इस दौड़  में 
ये अनजानी सी मंद्चाल है क्यों  ?

खयालों की इस भीड़ में,
ये सोच दूर तक सूनी है क्यों ?

सफलता के दौर के इस कोलाहल में ,
इन कानो में असफलता का सन्नाटा है क्यूं ?

तेज़ चिलचिलाती धुप के पसीने में,
ये अजब सी ठंडक है क्यों\?

दूषित हवा के इस वतावारारण में,
आई सूकुने ज़िन्दगी की लहर कहाँ से और क्यों ?

मीलों तक कतम न होने वाले इस रेगिस्तान में,
ये पानी में परछाई का धोका है क्यों ?

इन सभी प्रशनों  के उत्तर में,
ये जुबां  निरंतर निरुत्तर है क्यों ?


Friday, December 24, 2010

जन्मदाता

 उम्र दर उम्र है उसने सँभाला
हर बुराई या दुहाई में मेरा रखवाला 
मेरी हर मुश्किल-मुसीबत का सहारा
मेरे व्यक्तित्व को कुम्हार की भांति संवारा 

मेरी नींद को मीठे सपने देकर अपनी नींद को भुलाता वो
मुझे पढ़ाने क लिए अपने ऐशो-आराम को गंवाता वो
व्यस्क को स्नातकता के लिए अपनी जमा पूँजी को झोंकता वो
मेरी जीवनी को संवारने की खातिर, अपने सम्मान की बलि देने से भी न कभी कतरायेगा वो
मेरे सुख साधन और चमक धमक क लिए, अपने कपड़े तक खरीदना भूल जाता है वो
मेरे जीवन की हर त्रुटी मिटाने क लिए, अपने अरमानो का हर रोज़ गला घोंटता है जो................

वो है मेरा जन्मदाता, मेरा पिता
इस जन्म में इश्वर जैसा मुझे मिला  
उसी पिता का है यह सब प्रताप
कोशिश यही है की न करूँ कभी उसके ह्रदय पे अघात 

में धन्य हूँ, करता हूँ उसे नमन
मान-सम्मान बढ़ने हेतु करूँगा हर जतन........

Wednesday, October 13, 2010

सन्नाटा


सून-सान सा खींचता मुझे,
पूंछता क्या दर्द तुझे?
वक़्त की बेड़ियों से जकड़ा,
वर्तमान से है उखड़ा.
है मेरे मन में उफनाता,
पाने को मुझे तम-तमाता,
कभी-कभी झुंझला भी जाता- मेरे मन का वो सन्नाटा...............


व्यस्तता से रहता परे,
मेरे मन में पल-पल मरे,
कहता- सब छोड़ मुझे तू जीत ले,दुखी हैं दिल की कोंम्पलें.
इन्हें समय की गुहार है,तुझपे इनका अधिकार है.
मत छोड़ इन्हें इस व्यस्तता में,
दुःख होता इन्हें-देख तुझे इस लस्तता में.
फिर मुझे यूँ खींच लता,
पाके मुझे यूँ बिचल जाता- मेरे मन का वो सन्नाटा...............


प्रतिदिन इसी काल-चक्र में,फंसा देख मुझे, वो खिल-खिलाता.
लगता मुझे की मुझे वो समझ न पता..............
पर एक दिन- जब खिंच ही आया में-
उस व्यस्तता को छोड़,
मन में थी न जाने कितने प्रश्नों की होड़.
उन सबको हल करता,मेरी कठिनाइयों को विफल करता.
फिर मुझे यूँ बुला ले जाता,
पाके मुझे यूँ बिचल जाता- मेरे मन का वो सन्नाटा...............


कहता-
मुझे हासिल कर किसी का कुछ भी नहीं जाता,
बस अपने विचारों का मोहताज हर इंसान सिमट जाता.
यदि छीन जाये व्यस्तता तो शख्स बिखर जाता,
और छीन जाऊं में तो सब कुछ सुधर जाता.
यही द्वंद्व हर रोज़ मुझे यूँ खींच लाता,
न जाने किस बहाने से मुझे बुला ले जाता,
और पाके मुझे फिर यूँ बिचल जाता- मेरे मन का वो सन्नाटा...............

Saturday, October 9, 2010

परिवर्तन


आज शाम थक हारकर
सारी कठिनाइयों को पार कर.
तैयार है बिस्तर,फिर तुझे खींचता 
गर्माहट से तत्पर,तेरी नींद को सींचता.


पर न जाने वह सपने इतनी पराये क्यों हो गए
जो बचपन में कभी मीठे हुआ करते थे.
वो किस्से-कहानियाँ इतने पराये क्यों हो गए
जो कभी चाकलेट-टाफी तो कभी परियों के देश से हुआ करते थे


यह परिवर्तन कुछ ठीक नहीं लगता
सोचकर यही तो हर शब् तू जगता.
कभी समय था-जब बिस्तर न छोड़ने के लिए दर्द पेट में अचानक उठता.
और अब समय है-की आत्मा के दर्द को तू महसूस नहीं कर सकता.


अब तो झूले और क्लास में बेंच की लड़ाई,
एक बड़ा रूप धारण कर हो गयी तेरे पद और पैसे की लड़ाई.
तभी तो अब इंसान ढूंढे नहीं मिलते,
नाम के साथ बस ओहदे टंगे मिलते.


यह क्या है और क्यों है,क्या तुझे समझ नहीं आता.
अपने ज़मीर को कुचलना बंद कर तू सुधर क्यों नहीं जाता.
अब क्या फायदा इस डांट का समय बदल गया है,
नहीं लायक तू इस कांट का तू दुनिया की दौड़ में ढल गया है.
या कहूं की तुम बड़े हो गए, समझने की शक्ति आ गयी है,
ये जटिल आत्मा लिए जो तुम खड़े हो गए,
यही  नासमझी तो तुम्हे खा गयी है.


अभी भी वक़्त है,तू इससे निकल सकता है.
तू भले ही इसमें विरक्त है,तू बदल सकता है.
जैसे छिले हुए घुटनों पर फिर मरहम लग सकता है.
किसी बच्चे से जाकर सीख,तू फिर इंसानियत में ढल सकता है.

उलझन





बिखरी सी कहीं स्वयं से स्वयं की संवेदना,
मन के असीम सागर में गोते खाती हर रोज़ मेरी चेतना.


बीते सब दिनों पे हस्तक्षेप करते स्व के विचार,
उम्मीद की किरण से बंधे है सब बदलने को व्यहवार.
लक्ष्य जब कभी आँखों से धुंधला जाता है,
पथ पर भटकता मन फिर ठोकर खा जाता है.


सोचता है की क्या अब सब सजा पूरी हो गयी,
तैयार करता स्वयं को,एक नयी दौड़ की शुरुआत हो गयी .


फिर अचानक लगता एक झटका,
समय की आंधी से फिर खाया एक पटका,
कभी इस ओर कभी उस ओर,
न जाने मन कहाँ-कहाँ भटका
देखा कुछ देर बाद,
तो यह जीवन फिर उसी आशा की डाल से लटका.


यह सब सहता, थक हार कर मन फिर कहता......
यह खेल न जाने कब थमेगा,
समय स्वयं को दोहराना कब शून्य करेगा.


तब स्व से आती एक आवाज़.......
बस थमे रहो पाने को एक नया साज़,
थिरकने देना उसपर अपनी ज़िन्दगी के तार.


और जब यह....
आवाज़,साज़,तार-तमय टूट जाए.
तब समझ लेना की है अब अंत का आगाज़.

Saturday, September 11, 2010

क्या बदलाव ज़रूरी है?


नज़र उठा के नज़र चुराना अपने गुरूर से
जज़्बात ही अकेला बहाना है इकरारे हुज़ूर से

सीरत की क्या बिसात है रिवाजे खन-खून में
जिस्म्पोशी ही ज़रूरी है आज बाजारे जूनून में

सिक्का खनक के क्या गुल खिलायेगा
उसकी चमक तो अब कागजे-नोट ले जाएगा

वक़्त के साथ बदलना ज़रूरी है अब यहाँ के खून में
वरना काबिलियत हो जायेगी ख़ाक फिर इस माहे-जून में

साहिलों के साथ किनारा ढूँढती रह जायेगी कश्ती हमारी
रूह को जला के ख़ाक कर देगी ये चकाचोंद की बिमारी 
तेज़ तूफ़ान में जैसे छूट जायेगी हमारे सपनो को सवारी
लगता है सुकूने-ज़िन्दगी को कैद कर ले जायेगी अब ये चार-दीवारी

गम को छुपा के यहाँ कौन रह पायेगा
यह वक़्त है-फिर एक बार रंग दिखायेगा
बच गए इस बदलाव से तो इतिहास बन जाएगा
नहीं तो फिर एक बार जुबां से सुकूने-लफ्ज़ छिन जाएगा 


दोराहे


प्यासे थे हम पानी की तलाश में
तनहा निकल चले हम मंज़िल की तलाश में
ज़िन्दगी थिरक रही थी उस रेशमी लिबास में
रास्ता सीधा था पूरा, मेरे होशो-हवास में


अब आ गए हम एक अनजाने-अनदेखे दोराहे पर
जहाँ चुनाव था मुश्किल मेरी मंजिले-मुमकिन उस राहे पर

एक राह थी साफ़-सुथरी जानी पहचानी
और दूसरी थी एक एतिहासिक पुरानी

आसान सी साफ़ राह मुझे खीचे जा रही थी
और अगले ही पल पुरानी राह देख मुझे उसूलों की याद आ रही थी

कठिन था चलना उस पुरानी राह पर
पर जानता था की मंज़िल मिलनी है इसी चाह पर
इसलिए निकल पड़ा में,साफ़ करता उस अन्कुच्ली राह को
जहाँ मिलती थीं मुश्किलें बांधे कफ़न फनाह को

डरा नहीं में,रुका नहीं में
चलता रहा स्थिर
न था मुसीबत का दर,न कोई फ़िक्र 

क्योंकि-
किसी बुज़ुर्ग ने एक सलाह दी थी
की चुनाव की ताकत मन में ही छिपी थी
जनता था की वहा मुश्किलें  बोहत थीं 
पर मंज़िल के शिखर पर चमकने की एक राह वही थी.......