Friday, August 13, 2010

मंजिल










जज़बात की आंधी से दूर






आँखों में मंज़िल का गुरूर 
मंज़िल पाने का जज्बा भरपूर 
फिर भी न जाने मंज़िल लगती क्यों दूर


तूफ़ान से तेज़ चलने की चाह
हर घडी हर वक़्त बदलती है राह
सारी कायनात इस बात की है गवाह
कितना बेताब हूँ पाने को सुबह


जब भी लगा थक गया हूँ
थमने पर मजबूर हो गया हूँ 
लगा जैसे की भीड़ में खो गया हूँ
इसलिए नयी उड़ान भर अब मैं गगन का हो गया हूँ


उस गगन की तो बात ही निराली है 
कभी सूर्य की शक्ति, तो कभी तारो की हरियाली है
पता चला मुझे की, मेरा इश्वर इस बागीचे का माली है
तभी तो यहाँ इतनी खुशहाली है


अब जी नहीं करता की यहाँ से लौट जाऊं 
बादलों के साथ खेलूँ ,हवा से बतियाऊं और बस यहीं का हो जाऊं 
आया समझ में अब, की सपनो को पूरा करने के लिए यहाँ आना ज़रूरी है
इसलिए ज़िन्दगी की दौड़ में तूफ़ान से ज्यादा वेग लाना ज़रूरी है 


फकीरा


फकीरा 
ज़िन्दगी की दौड में मैं एक फकीरा सा,
मन में उम्मीद लिए चलता हूँ बघीरा सा
आँखों में मेरी एक सपना अधूरा सा,
बहते सागर में जैसे जहाज़ फितूर सा 

कभी बढ़ता हूँ उफान से,
लड़ता हुआ तूफ़ान से
कटता है कतरा फिर- तिल-तिल जान से,
जैसे आखिरी लौ हो चिरागे-शान से 

क्या मेरी नसीबे-ज़िन्दगी में लिखा यही? 
उठ के लड़ना और फिर गिरना यही,
समझ नहीं आता की क्या गलत और क्या सही?
करारे-इंतज़ार एक लरज़ती रोशनी नयी

ज़िन्दगी की दौड में मैं एक फकीर सा,
मन में उम्मीद लिए चलता हूँ बघीरा सा
आँखों में मेरी एक सपना अधूरा सा,
बहते सागर में जैसे जहाज़ फितूर सा