Friday, August 13, 2010

फकीरा


फकीरा 
ज़िन्दगी की दौड में मैं एक फकीरा सा,
मन में उम्मीद लिए चलता हूँ बघीरा सा
आँखों में मेरी एक सपना अधूरा सा,
बहते सागर में जैसे जहाज़ फितूर सा 

कभी बढ़ता हूँ उफान से,
लड़ता हुआ तूफ़ान से
कटता है कतरा फिर- तिल-तिल जान से,
जैसे आखिरी लौ हो चिरागे-शान से 

क्या मेरी नसीबे-ज़िन्दगी में लिखा यही? 
उठ के लड़ना और फिर गिरना यही,
समझ नहीं आता की क्या गलत और क्या सही?
करारे-इंतज़ार एक लरज़ती रोशनी नयी

ज़िन्दगी की दौड में मैं एक फकीर सा,
मन में उम्मीद लिए चलता हूँ बघीरा सा
आँखों में मेरी एक सपना अधूरा सा,
बहते सागर में जैसे जहाज़ फितूर सा

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