Wednesday, October 13, 2010

सन्नाटा


सून-सान सा खींचता मुझे,
पूंछता क्या दर्द तुझे?
वक़्त की बेड़ियों से जकड़ा,
वर्तमान से है उखड़ा.
है मेरे मन में उफनाता,
पाने को मुझे तम-तमाता,
कभी-कभी झुंझला भी जाता- मेरे मन का वो सन्नाटा...............


व्यस्तता से रहता परे,
मेरे मन में पल-पल मरे,
कहता- सब छोड़ मुझे तू जीत ले,दुखी हैं दिल की कोंम्पलें.
इन्हें समय की गुहार है,तुझपे इनका अधिकार है.
मत छोड़ इन्हें इस व्यस्तता में,
दुःख होता इन्हें-देख तुझे इस लस्तता में.
फिर मुझे यूँ खींच लता,
पाके मुझे यूँ बिचल जाता- मेरे मन का वो सन्नाटा...............


प्रतिदिन इसी काल-चक्र में,फंसा देख मुझे, वो खिल-खिलाता.
लगता मुझे की मुझे वो समझ न पता..............
पर एक दिन- जब खिंच ही आया में-
उस व्यस्तता को छोड़,
मन में थी न जाने कितने प्रश्नों की होड़.
उन सबको हल करता,मेरी कठिनाइयों को विफल करता.
फिर मुझे यूँ बुला ले जाता,
पाके मुझे यूँ बिचल जाता- मेरे मन का वो सन्नाटा...............


कहता-
मुझे हासिल कर किसी का कुछ भी नहीं जाता,
बस अपने विचारों का मोहताज हर इंसान सिमट जाता.
यदि छीन जाये व्यस्तता तो शख्स बिखर जाता,
और छीन जाऊं में तो सब कुछ सुधर जाता.
यही द्वंद्व हर रोज़ मुझे यूँ खींच लाता,
न जाने किस बहाने से मुझे बुला ले जाता,
और पाके मुझे फिर यूँ बिचल जाता- मेरे मन का वो सन्नाटा...............

Saturday, October 9, 2010

परिवर्तन


आज शाम थक हारकर
सारी कठिनाइयों को पार कर.
तैयार है बिस्तर,फिर तुझे खींचता 
गर्माहट से तत्पर,तेरी नींद को सींचता.


पर न जाने वह सपने इतनी पराये क्यों हो गए
जो बचपन में कभी मीठे हुआ करते थे.
वो किस्से-कहानियाँ इतने पराये क्यों हो गए
जो कभी चाकलेट-टाफी तो कभी परियों के देश से हुआ करते थे


यह परिवर्तन कुछ ठीक नहीं लगता
सोचकर यही तो हर शब् तू जगता.
कभी समय था-जब बिस्तर न छोड़ने के लिए दर्द पेट में अचानक उठता.
और अब समय है-की आत्मा के दर्द को तू महसूस नहीं कर सकता.


अब तो झूले और क्लास में बेंच की लड़ाई,
एक बड़ा रूप धारण कर हो गयी तेरे पद और पैसे की लड़ाई.
तभी तो अब इंसान ढूंढे नहीं मिलते,
नाम के साथ बस ओहदे टंगे मिलते.


यह क्या है और क्यों है,क्या तुझे समझ नहीं आता.
अपने ज़मीर को कुचलना बंद कर तू सुधर क्यों नहीं जाता.
अब क्या फायदा इस डांट का समय बदल गया है,
नहीं लायक तू इस कांट का तू दुनिया की दौड़ में ढल गया है.
या कहूं की तुम बड़े हो गए, समझने की शक्ति आ गयी है,
ये जटिल आत्मा लिए जो तुम खड़े हो गए,
यही  नासमझी तो तुम्हे खा गयी है.


अभी भी वक़्त है,तू इससे निकल सकता है.
तू भले ही इसमें विरक्त है,तू बदल सकता है.
जैसे छिले हुए घुटनों पर फिर मरहम लग सकता है.
किसी बच्चे से जाकर सीख,तू फिर इंसानियत में ढल सकता है.

उलझन





बिखरी सी कहीं स्वयं से स्वयं की संवेदना,
मन के असीम सागर में गोते खाती हर रोज़ मेरी चेतना.


बीते सब दिनों पे हस्तक्षेप करते स्व के विचार,
उम्मीद की किरण से बंधे है सब बदलने को व्यहवार.
लक्ष्य जब कभी आँखों से धुंधला जाता है,
पथ पर भटकता मन फिर ठोकर खा जाता है.


सोचता है की क्या अब सब सजा पूरी हो गयी,
तैयार करता स्वयं को,एक नयी दौड़ की शुरुआत हो गयी .


फिर अचानक लगता एक झटका,
समय की आंधी से फिर खाया एक पटका,
कभी इस ओर कभी उस ओर,
न जाने मन कहाँ-कहाँ भटका
देखा कुछ देर बाद,
तो यह जीवन फिर उसी आशा की डाल से लटका.


यह सब सहता, थक हार कर मन फिर कहता......
यह खेल न जाने कब थमेगा,
समय स्वयं को दोहराना कब शून्य करेगा.


तब स्व से आती एक आवाज़.......
बस थमे रहो पाने को एक नया साज़,
थिरकने देना उसपर अपनी ज़िन्दगी के तार.


और जब यह....
आवाज़,साज़,तार-तमय टूट जाए.
तब समझ लेना की है अब अंत का आगाज़.