Saturday, October 9, 2010

उलझन





बिखरी सी कहीं स्वयं से स्वयं की संवेदना,
मन के असीम सागर में गोते खाती हर रोज़ मेरी चेतना.


बीते सब दिनों पे हस्तक्षेप करते स्व के विचार,
उम्मीद की किरण से बंधे है सब बदलने को व्यहवार.
लक्ष्य जब कभी आँखों से धुंधला जाता है,
पथ पर भटकता मन फिर ठोकर खा जाता है.


सोचता है की क्या अब सब सजा पूरी हो गयी,
तैयार करता स्वयं को,एक नयी दौड़ की शुरुआत हो गयी .


फिर अचानक लगता एक झटका,
समय की आंधी से फिर खाया एक पटका,
कभी इस ओर कभी उस ओर,
न जाने मन कहाँ-कहाँ भटका
देखा कुछ देर बाद,
तो यह जीवन फिर उसी आशा की डाल से लटका.


यह सब सहता, थक हार कर मन फिर कहता......
यह खेल न जाने कब थमेगा,
समय स्वयं को दोहराना कब शून्य करेगा.


तब स्व से आती एक आवाज़.......
बस थमे रहो पाने को एक नया साज़,
थिरकने देना उसपर अपनी ज़िन्दगी के तार.


और जब यह....
आवाज़,साज़,तार-तमय टूट जाए.
तब समझ लेना की है अब अंत का आगाज़.

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