घर से दूर एक चिंगारी मुझे बड़ा जलती है.
कहती है मैं याद हूँ,
और फिर गायब हो जाती है.
सोचता हूँ इस व्यस्तता में,
वो मेरे करीब क्यों नहीं आती.
वो कहती है,
तुम्हारी व्यस्तता ज्वलनशील है,
मुझ चिंगारी को नहीं भाति.
फिर एक दिन बारिश में, जब व्यस्तता भीग गयी
उस चिंगारी ने एक लौ बन के
मेरे मन को भुना सा कर दिया.
मैंने कहा की बोहत हुआ, खीच रा हूँ अपने घर की ओर,
ये तुमने क्या कर दिया.
तब चिंगारी ने मुझे संकेत दिया की अब लौट चलो,
बोहत हुआ व्यस्तता का नाटक.
कहीं इतनी देर में रुक जाए बारिश,
और फिर बंद न हो जाए तुम्हारे मन के फाटक.
लाख कोशिश के बाद भी इस द्वन्द को विराम देना न सिख पाया.
चिंगारी ने कहा तब, ये कर्म ही तो है जो तुम्हे तुम्हारे घर से दूर लाया.
यह सोचकर व्यस्तता में डूबने के बाद, चिंगारी मेरे करीब न आ सकी.
और फिर एक बार मेरे घर की याद मुझे न सता सकी.
Sunday, July 11, 2010
Friday, July 9, 2010
सागरके तट से दूर क्षितिज तक अनगिनत थिरकती लहरें हैं,
लहरों के भीतर उस सागर के अरमान बड़े ही गहरे हैं।
तट पर न जाने कितनी प्रतिभाओं के अति रम्य महल और चेहरे हैं,
सागर की उफनती फोज के लिए उन महलों में न कोई पहरे हैं।
ज़िन्दगी की इस आजमयिश में, न जाने हम आगे बढ़कर क्यूँ ठहरे हैं,
क्या भय है सागर की लहरों का जिनके लिए न कोई पहरे हैं।
सागर के तट से दूर क्षितिज तक अनगिनत थिरकती लहरें हैं,
लहरों के भीतर उस सागर के अरमान बड़े ही गहरे हैं।
Wednesday, July 7, 2010
न जाने क्यों आज रोने का मन करता है.
न जाने क्यूँ आज रोने का मन करता है।
माला से टूटे हर मोती को नयी लड़ी में पिरोने का मन करता है।
मेरे मन पे लगे दागों को धोने का मन करता है।
न जाने क्यूँ आज रोने का मन करता है।
समझ नहीं पता की क्यों सब कुछ पके खोने का मन करता है।
मेरे सूखे हुए दिल को आज फिर अशकों से भिगोने का मन करता है।
न जाने क्यों आज रोने का मन करता है.
माला से टूटे हर मोती को नयी लड़ी में पिरोने का मन करता है।
मेरे मन पे लगे दागों को धोने का मन करता है।
न जाने क्यूँ आज रोने का मन करता है।
समझ नहीं पता की क्यों सब कुछ पके खोने का मन करता है।
मेरे सूखे हुए दिल को आज फिर अशकों से भिगोने का मन करता है।
न जाने क्यों आज रोने का मन करता है.
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