नज़र उठा के नज़र चुराना अपने गुरूर से
जज़्बात ही अकेला बहाना है इकरारे हुज़ूर से
सीरत की क्या बिसात है रिवाजे खन-खून में
जिस्म्पोशी ही ज़रूरी है आज बाजारे जूनून में
सिक्का खनक के क्या गुल खिलायेगा
उसकी चमक तो अब कागजे-नोट ले जाएगा
वक़्त के साथ बदलना ज़रूरी है अब यहाँ के खून में
वरना काबिलियत हो जायेगी ख़ाक फिर इस माहे-जून में
साहिलों के साथ किनारा ढूँढती रह जायेगी कश्ती हमारी
रूह को जला के ख़ाक कर देगी ये चकाचोंद की बिमारी
तेज़ तूफ़ान में जैसे छूट जायेगी हमारे सपनो को सवारी
लगता है सुकूने-ज़िन्दगी को कैद कर ले जायेगी अब ये चार-दीवारी
गम को छुपा के यहाँ कौन रह पायेगा
यह वक़्त है-फिर एक बार रंग दिखायेगा
बच गए इस बदलाव से तो इतिहास बन जाएगा
नहीं तो फिर एक बार जुबां से सुकूने-लफ्ज़ छिन जाएगा