Saturday, September 11, 2010

क्या बदलाव ज़रूरी है?


नज़र उठा के नज़र चुराना अपने गुरूर से
जज़्बात ही अकेला बहाना है इकरारे हुज़ूर से

सीरत की क्या बिसात है रिवाजे खन-खून में
जिस्म्पोशी ही ज़रूरी है आज बाजारे जूनून में

सिक्का खनक के क्या गुल खिलायेगा
उसकी चमक तो अब कागजे-नोट ले जाएगा

वक़्त के साथ बदलना ज़रूरी है अब यहाँ के खून में
वरना काबिलियत हो जायेगी ख़ाक फिर इस माहे-जून में

साहिलों के साथ किनारा ढूँढती रह जायेगी कश्ती हमारी
रूह को जला के ख़ाक कर देगी ये चकाचोंद की बिमारी 
तेज़ तूफ़ान में जैसे छूट जायेगी हमारे सपनो को सवारी
लगता है सुकूने-ज़िन्दगी को कैद कर ले जायेगी अब ये चार-दीवारी

गम को छुपा के यहाँ कौन रह पायेगा
यह वक़्त है-फिर एक बार रंग दिखायेगा
बच गए इस बदलाव से तो इतिहास बन जाएगा
नहीं तो फिर एक बार जुबां से सुकूने-लफ्ज़ छिन जाएगा 


दोराहे


प्यासे थे हम पानी की तलाश में
तनहा निकल चले हम मंज़िल की तलाश में
ज़िन्दगी थिरक रही थी उस रेशमी लिबास में
रास्ता सीधा था पूरा, मेरे होशो-हवास में


अब आ गए हम एक अनजाने-अनदेखे दोराहे पर
जहाँ चुनाव था मुश्किल मेरी मंजिले-मुमकिन उस राहे पर

एक राह थी साफ़-सुथरी जानी पहचानी
और दूसरी थी एक एतिहासिक पुरानी

आसान सी साफ़ राह मुझे खीचे जा रही थी
और अगले ही पल पुरानी राह देख मुझे उसूलों की याद आ रही थी

कठिन था चलना उस पुरानी राह पर
पर जानता था की मंज़िल मिलनी है इसी चाह पर
इसलिए निकल पड़ा में,साफ़ करता उस अन्कुच्ली राह को
जहाँ मिलती थीं मुश्किलें बांधे कफ़न फनाह को

डरा नहीं में,रुका नहीं में
चलता रहा स्थिर
न था मुसीबत का दर,न कोई फ़िक्र 

क्योंकि-
किसी बुज़ुर्ग ने एक सलाह दी थी
की चुनाव की ताकत मन में ही छिपी थी
जनता था की वहा मुश्किलें  बोहत थीं 
पर मंज़िल के शिखर पर चमकने की एक राह वही थी.......

Wednesday, September 1, 2010

सेतु


मंज़िल के फासलों को मिटाने के वास्ते 
में बन गया एक सेतु 
अपनों की ज़रूरतों को
पूरा करने हेतु

में खड़ा रहता स्थिर, ग्रीष्म,सर्द,बरसात
हर पल हर क्षण देता उनका साथ
बीत रहे थे दिन,महीने,साल
और जीत रहे थे मेरे सब अपने नापते जीवन की चाल

सोचता कभी की क्या में एक जरिया मात्र हूँ
या कभी इनकी बधाई का पात्र हूँ

सहनशीलता मेरी दिनों-दिन बढती
और मेरी संवेदनाएं बस मुझ ही में गढ़ती 
अपनों की भीड़ जब आपस में लडती
ये देख मेरी आत्मा बिगडती

अब थक गया मैं,जीर्ण-क्षीर्ण हालत मेरी
पर अपनों की भीड़ तैयार लगाने को एक और फेरी

उनके लिए मैं तत्पर खड़ा हूँ
अपनी कमजोरियों से मैं खुद ही लड़ा हूँ
पर वो रहे अनजान मेरी इस अवस्था से
और हो गया मैं परेशान इस व्यवस्था से

शायद कुछ और दिन जब तक जान है
इस्तेमाल के लायक हूँ पर मुझमे थकान है
टूटना नहीं चाहता अपनों की खातिर
बस चाहता हूँ की समझे मुझे एक अपने की खातिर

आज एक और दिन बीत गया


आज एक और दिन बीत गया
में अपनी इछाओं से फिर रीत गया 
लड़ते-लड़ते कठिनाइयों से में फिर सीख गया 
आज एक और दिन बीत गया 

रम्य लुभावने लगते हैं, दुनिया के ये झरोखे,
मेरा मन भांप लेता है की हैं ये बस मेले के एक धोके 
उनसे अनभिज्ञ रहकर में बनता हूँ अनजान 
इसी से आगे बढ़कर चाहता हूँ बने मेरी पहचान 

ज्ञान चक्षु अब मेरे खुल गए हैं
सभी भूलों के पाप शायद धुल गए हैं
मौसम फिर एक बार बदल गए हैं
तूफ़ान से इरादों के जहाज़ निकल गए हैं 

रह-रह कर करता हूँ इंतज़ार,
दिल बेचैन और मन बेकरार 
डरता हूँ मंज़िल न करदे इनकार
यही है एक अकेला अनकहा सा करार

वीशवास करना आत्मा पर अब आदत है मेरी
म्हणत और भरोसा ही अब इबादत है मेरी
बढ़ चला हूँ आगे पाने को वो शोहरत मेरी
अब यही अंत तक रहेगी फितरत मेरी.

चाहत


यादों का आना जाना है,
मेरे मन के घर आँगन में.
एक अनकहा सा बहाना है,
बारिश की बूंदों का इस सावन में. 

ठहरता नहीं दिल मेरे लाख समझाने में
भीगा है मन,सुखा है तन,वर्षा के इस फव्वारे में
न जाने कैसी कशिश है ,छुए से अनछुआ रह जाने में
जैसे भीड़ में हम चुक जाएँ उनसे हाथ मिलाने में

अनजान हैं वो की एक वीराना भी आज़ाद है मुझ जैसे दीवाने में
कहते हैं, एक अलग ही मज़ा है,कुछ खोकर कुछ पाने में

कहता है मन-
जिसे पाने की चाह है, क्या मज़ा उसे गवाने में
भले ही मेरी चाहतों को अब तौल दे वो सोने के पैमाने में.