मंज़िल के फासलों को मिटाने के वास्ते
में बन गया एक सेतु
अपनों की ज़रूरतों को
पूरा करने हेतु
में खड़ा रहता स्थिर, ग्रीष्म,सर्द,बरसात
हर पल हर क्षण देता उनका साथ
बीत रहे थे दिन,महीने,साल
और जीत रहे थे मेरे सब अपने नापते जीवन की चाल
सोचता कभी की क्या में एक जरिया मात्र हूँ
या कभी इनकी बधाई का पात्र हूँ
सहनशीलता मेरी दिनों-दिन बढती
और मेरी संवेदनाएं बस मुझ ही में गढ़ती
अपनों की भीड़ जब आपस में लडती
ये देख मेरी आत्मा बिगडती
अब थक गया मैं,जीर्ण-क्षीर्ण हालत मेरी
पर अपनों की भीड़ तैयार लगाने को एक और फेरी
उनके लिए मैं तत्पर खड़ा हूँ
अपनी कमजोरियों से मैं खुद ही लड़ा हूँ
पर वो रहे अनजान मेरी इस अवस्था से
और हो गया मैं परेशान इस व्यवस्था से
शायद कुछ और दिन जब तक जान है
इस्तेमाल के लायक हूँ पर मुझमे थकान है
टूटना नहीं चाहता अपनों की खातिर
बस चाहता हूँ की समझे मुझे एक अपने की खातिर
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