Wednesday, September 1, 2010

चाहत


यादों का आना जाना है,
मेरे मन के घर आँगन में.
एक अनकहा सा बहाना है,
बारिश की बूंदों का इस सावन में. 

ठहरता नहीं दिल मेरे लाख समझाने में
भीगा है मन,सुखा है तन,वर्षा के इस फव्वारे में
न जाने कैसी कशिश है ,छुए से अनछुआ रह जाने में
जैसे भीड़ में हम चुक जाएँ उनसे हाथ मिलाने में

अनजान हैं वो की एक वीराना भी आज़ाद है मुझ जैसे दीवाने में
कहते हैं, एक अलग ही मज़ा है,कुछ खोकर कुछ पाने में

कहता है मन-
जिसे पाने की चाह है, क्या मज़ा उसे गवाने में
भले ही मेरी चाहतों को अब तौल दे वो सोने के पैमाने में.

No comments:

Post a Comment