Saturday, September 11, 2010

दोराहे


प्यासे थे हम पानी की तलाश में
तनहा निकल चले हम मंज़िल की तलाश में
ज़िन्दगी थिरक रही थी उस रेशमी लिबास में
रास्ता सीधा था पूरा, मेरे होशो-हवास में


अब आ गए हम एक अनजाने-अनदेखे दोराहे पर
जहाँ चुनाव था मुश्किल मेरी मंजिले-मुमकिन उस राहे पर

एक राह थी साफ़-सुथरी जानी पहचानी
और दूसरी थी एक एतिहासिक पुरानी

आसान सी साफ़ राह मुझे खीचे जा रही थी
और अगले ही पल पुरानी राह देख मुझे उसूलों की याद आ रही थी

कठिन था चलना उस पुरानी राह पर
पर जानता था की मंज़िल मिलनी है इसी चाह पर
इसलिए निकल पड़ा में,साफ़ करता उस अन्कुच्ली राह को
जहाँ मिलती थीं मुश्किलें बांधे कफ़न फनाह को

डरा नहीं में,रुका नहीं में
चलता रहा स्थिर
न था मुसीबत का दर,न कोई फ़िक्र 

क्योंकि-
किसी बुज़ुर्ग ने एक सलाह दी थी
की चुनाव की ताकत मन में ही छिपी थी
जनता था की वहा मुश्किलें  बोहत थीं 
पर मंज़िल के शिखर पर चमकने की एक राह वही थी.......

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