Friday, December 24, 2010

जन्मदाता

 उम्र दर उम्र है उसने सँभाला
हर बुराई या दुहाई में मेरा रखवाला 
मेरी हर मुश्किल-मुसीबत का सहारा
मेरे व्यक्तित्व को कुम्हार की भांति संवारा 

मेरी नींद को मीठे सपने देकर अपनी नींद को भुलाता वो
मुझे पढ़ाने क लिए अपने ऐशो-आराम को गंवाता वो
व्यस्क को स्नातकता के लिए अपनी जमा पूँजी को झोंकता वो
मेरी जीवनी को संवारने की खातिर, अपने सम्मान की बलि देने से भी न कभी कतरायेगा वो
मेरे सुख साधन और चमक धमक क लिए, अपने कपड़े तक खरीदना भूल जाता है वो
मेरे जीवन की हर त्रुटी मिटाने क लिए, अपने अरमानो का हर रोज़ गला घोंटता है जो................

वो है मेरा जन्मदाता, मेरा पिता
इस जन्म में इश्वर जैसा मुझे मिला  
उसी पिता का है यह सब प्रताप
कोशिश यही है की न करूँ कभी उसके ह्रदय पे अघात 

में धन्य हूँ, करता हूँ उसे नमन
मान-सम्मान बढ़ने हेतु करूँगा हर जतन........

Wednesday, October 13, 2010

सन्नाटा


सून-सान सा खींचता मुझे,
पूंछता क्या दर्द तुझे?
वक़्त की बेड़ियों से जकड़ा,
वर्तमान से है उखड़ा.
है मेरे मन में उफनाता,
पाने को मुझे तम-तमाता,
कभी-कभी झुंझला भी जाता- मेरे मन का वो सन्नाटा...............


व्यस्तता से रहता परे,
मेरे मन में पल-पल मरे,
कहता- सब छोड़ मुझे तू जीत ले,दुखी हैं दिल की कोंम्पलें.
इन्हें समय की गुहार है,तुझपे इनका अधिकार है.
मत छोड़ इन्हें इस व्यस्तता में,
दुःख होता इन्हें-देख तुझे इस लस्तता में.
फिर मुझे यूँ खींच लता,
पाके मुझे यूँ बिचल जाता- मेरे मन का वो सन्नाटा...............


प्रतिदिन इसी काल-चक्र में,फंसा देख मुझे, वो खिल-खिलाता.
लगता मुझे की मुझे वो समझ न पता..............
पर एक दिन- जब खिंच ही आया में-
उस व्यस्तता को छोड़,
मन में थी न जाने कितने प्रश्नों की होड़.
उन सबको हल करता,मेरी कठिनाइयों को विफल करता.
फिर मुझे यूँ बुला ले जाता,
पाके मुझे यूँ बिचल जाता- मेरे मन का वो सन्नाटा...............


कहता-
मुझे हासिल कर किसी का कुछ भी नहीं जाता,
बस अपने विचारों का मोहताज हर इंसान सिमट जाता.
यदि छीन जाये व्यस्तता तो शख्स बिखर जाता,
और छीन जाऊं में तो सब कुछ सुधर जाता.
यही द्वंद्व हर रोज़ मुझे यूँ खींच लाता,
न जाने किस बहाने से मुझे बुला ले जाता,
और पाके मुझे फिर यूँ बिचल जाता- मेरे मन का वो सन्नाटा...............

Saturday, October 9, 2010

परिवर्तन


आज शाम थक हारकर
सारी कठिनाइयों को पार कर.
तैयार है बिस्तर,फिर तुझे खींचता 
गर्माहट से तत्पर,तेरी नींद को सींचता.


पर न जाने वह सपने इतनी पराये क्यों हो गए
जो बचपन में कभी मीठे हुआ करते थे.
वो किस्से-कहानियाँ इतने पराये क्यों हो गए
जो कभी चाकलेट-टाफी तो कभी परियों के देश से हुआ करते थे


यह परिवर्तन कुछ ठीक नहीं लगता
सोचकर यही तो हर शब् तू जगता.
कभी समय था-जब बिस्तर न छोड़ने के लिए दर्द पेट में अचानक उठता.
और अब समय है-की आत्मा के दर्द को तू महसूस नहीं कर सकता.


अब तो झूले और क्लास में बेंच की लड़ाई,
एक बड़ा रूप धारण कर हो गयी तेरे पद और पैसे की लड़ाई.
तभी तो अब इंसान ढूंढे नहीं मिलते,
नाम के साथ बस ओहदे टंगे मिलते.


यह क्या है और क्यों है,क्या तुझे समझ नहीं आता.
अपने ज़मीर को कुचलना बंद कर तू सुधर क्यों नहीं जाता.
अब क्या फायदा इस डांट का समय बदल गया है,
नहीं लायक तू इस कांट का तू दुनिया की दौड़ में ढल गया है.
या कहूं की तुम बड़े हो गए, समझने की शक्ति आ गयी है,
ये जटिल आत्मा लिए जो तुम खड़े हो गए,
यही  नासमझी तो तुम्हे खा गयी है.


अभी भी वक़्त है,तू इससे निकल सकता है.
तू भले ही इसमें विरक्त है,तू बदल सकता है.
जैसे छिले हुए घुटनों पर फिर मरहम लग सकता है.
किसी बच्चे से जाकर सीख,तू फिर इंसानियत में ढल सकता है.

उलझन





बिखरी सी कहीं स्वयं से स्वयं की संवेदना,
मन के असीम सागर में गोते खाती हर रोज़ मेरी चेतना.


बीते सब दिनों पे हस्तक्षेप करते स्व के विचार,
उम्मीद की किरण से बंधे है सब बदलने को व्यहवार.
लक्ष्य जब कभी आँखों से धुंधला जाता है,
पथ पर भटकता मन फिर ठोकर खा जाता है.


सोचता है की क्या अब सब सजा पूरी हो गयी,
तैयार करता स्वयं को,एक नयी दौड़ की शुरुआत हो गयी .


फिर अचानक लगता एक झटका,
समय की आंधी से फिर खाया एक पटका,
कभी इस ओर कभी उस ओर,
न जाने मन कहाँ-कहाँ भटका
देखा कुछ देर बाद,
तो यह जीवन फिर उसी आशा की डाल से लटका.


यह सब सहता, थक हार कर मन फिर कहता......
यह खेल न जाने कब थमेगा,
समय स्वयं को दोहराना कब शून्य करेगा.


तब स्व से आती एक आवाज़.......
बस थमे रहो पाने को एक नया साज़,
थिरकने देना उसपर अपनी ज़िन्दगी के तार.


और जब यह....
आवाज़,साज़,तार-तमय टूट जाए.
तब समझ लेना की है अब अंत का आगाज़.

Saturday, September 11, 2010

क्या बदलाव ज़रूरी है?


नज़र उठा के नज़र चुराना अपने गुरूर से
जज़्बात ही अकेला बहाना है इकरारे हुज़ूर से

सीरत की क्या बिसात है रिवाजे खन-खून में
जिस्म्पोशी ही ज़रूरी है आज बाजारे जूनून में

सिक्का खनक के क्या गुल खिलायेगा
उसकी चमक तो अब कागजे-नोट ले जाएगा

वक़्त के साथ बदलना ज़रूरी है अब यहाँ के खून में
वरना काबिलियत हो जायेगी ख़ाक फिर इस माहे-जून में

साहिलों के साथ किनारा ढूँढती रह जायेगी कश्ती हमारी
रूह को जला के ख़ाक कर देगी ये चकाचोंद की बिमारी 
तेज़ तूफ़ान में जैसे छूट जायेगी हमारे सपनो को सवारी
लगता है सुकूने-ज़िन्दगी को कैद कर ले जायेगी अब ये चार-दीवारी

गम को छुपा के यहाँ कौन रह पायेगा
यह वक़्त है-फिर एक बार रंग दिखायेगा
बच गए इस बदलाव से तो इतिहास बन जाएगा
नहीं तो फिर एक बार जुबां से सुकूने-लफ्ज़ छिन जाएगा 


दोराहे


प्यासे थे हम पानी की तलाश में
तनहा निकल चले हम मंज़िल की तलाश में
ज़िन्दगी थिरक रही थी उस रेशमी लिबास में
रास्ता सीधा था पूरा, मेरे होशो-हवास में


अब आ गए हम एक अनजाने-अनदेखे दोराहे पर
जहाँ चुनाव था मुश्किल मेरी मंजिले-मुमकिन उस राहे पर

एक राह थी साफ़-सुथरी जानी पहचानी
और दूसरी थी एक एतिहासिक पुरानी

आसान सी साफ़ राह मुझे खीचे जा रही थी
और अगले ही पल पुरानी राह देख मुझे उसूलों की याद आ रही थी

कठिन था चलना उस पुरानी राह पर
पर जानता था की मंज़िल मिलनी है इसी चाह पर
इसलिए निकल पड़ा में,साफ़ करता उस अन्कुच्ली राह को
जहाँ मिलती थीं मुश्किलें बांधे कफ़न फनाह को

डरा नहीं में,रुका नहीं में
चलता रहा स्थिर
न था मुसीबत का दर,न कोई फ़िक्र 

क्योंकि-
किसी बुज़ुर्ग ने एक सलाह दी थी
की चुनाव की ताकत मन में ही छिपी थी
जनता था की वहा मुश्किलें  बोहत थीं 
पर मंज़िल के शिखर पर चमकने की एक राह वही थी.......

Wednesday, September 1, 2010

सेतु


मंज़िल के फासलों को मिटाने के वास्ते 
में बन गया एक सेतु 
अपनों की ज़रूरतों को
पूरा करने हेतु

में खड़ा रहता स्थिर, ग्रीष्म,सर्द,बरसात
हर पल हर क्षण देता उनका साथ
बीत रहे थे दिन,महीने,साल
और जीत रहे थे मेरे सब अपने नापते जीवन की चाल

सोचता कभी की क्या में एक जरिया मात्र हूँ
या कभी इनकी बधाई का पात्र हूँ

सहनशीलता मेरी दिनों-दिन बढती
और मेरी संवेदनाएं बस मुझ ही में गढ़ती 
अपनों की भीड़ जब आपस में लडती
ये देख मेरी आत्मा बिगडती

अब थक गया मैं,जीर्ण-क्षीर्ण हालत मेरी
पर अपनों की भीड़ तैयार लगाने को एक और फेरी

उनके लिए मैं तत्पर खड़ा हूँ
अपनी कमजोरियों से मैं खुद ही लड़ा हूँ
पर वो रहे अनजान मेरी इस अवस्था से
और हो गया मैं परेशान इस व्यवस्था से

शायद कुछ और दिन जब तक जान है
इस्तेमाल के लायक हूँ पर मुझमे थकान है
टूटना नहीं चाहता अपनों की खातिर
बस चाहता हूँ की समझे मुझे एक अपने की खातिर

आज एक और दिन बीत गया


आज एक और दिन बीत गया
में अपनी इछाओं से फिर रीत गया 
लड़ते-लड़ते कठिनाइयों से में फिर सीख गया 
आज एक और दिन बीत गया 

रम्य लुभावने लगते हैं, दुनिया के ये झरोखे,
मेरा मन भांप लेता है की हैं ये बस मेले के एक धोके 
उनसे अनभिज्ञ रहकर में बनता हूँ अनजान 
इसी से आगे बढ़कर चाहता हूँ बने मेरी पहचान 

ज्ञान चक्षु अब मेरे खुल गए हैं
सभी भूलों के पाप शायद धुल गए हैं
मौसम फिर एक बार बदल गए हैं
तूफ़ान से इरादों के जहाज़ निकल गए हैं 

रह-रह कर करता हूँ इंतज़ार,
दिल बेचैन और मन बेकरार 
डरता हूँ मंज़िल न करदे इनकार
यही है एक अकेला अनकहा सा करार

वीशवास करना आत्मा पर अब आदत है मेरी
म्हणत और भरोसा ही अब इबादत है मेरी
बढ़ चला हूँ आगे पाने को वो शोहरत मेरी
अब यही अंत तक रहेगी फितरत मेरी.

चाहत


यादों का आना जाना है,
मेरे मन के घर आँगन में.
एक अनकहा सा बहाना है,
बारिश की बूंदों का इस सावन में. 

ठहरता नहीं दिल मेरे लाख समझाने में
भीगा है मन,सुखा है तन,वर्षा के इस फव्वारे में
न जाने कैसी कशिश है ,छुए से अनछुआ रह जाने में
जैसे भीड़ में हम चुक जाएँ उनसे हाथ मिलाने में

अनजान हैं वो की एक वीराना भी आज़ाद है मुझ जैसे दीवाने में
कहते हैं, एक अलग ही मज़ा है,कुछ खोकर कुछ पाने में

कहता है मन-
जिसे पाने की चाह है, क्या मज़ा उसे गवाने में
भले ही मेरी चाहतों को अब तौल दे वो सोने के पैमाने में.

Friday, August 13, 2010

मंजिल










जज़बात की आंधी से दूर






आँखों में मंज़िल का गुरूर 
मंज़िल पाने का जज्बा भरपूर 
फिर भी न जाने मंज़िल लगती क्यों दूर


तूफ़ान से तेज़ चलने की चाह
हर घडी हर वक़्त बदलती है राह
सारी कायनात इस बात की है गवाह
कितना बेताब हूँ पाने को सुबह


जब भी लगा थक गया हूँ
थमने पर मजबूर हो गया हूँ 
लगा जैसे की भीड़ में खो गया हूँ
इसलिए नयी उड़ान भर अब मैं गगन का हो गया हूँ


उस गगन की तो बात ही निराली है 
कभी सूर्य की शक्ति, तो कभी तारो की हरियाली है
पता चला मुझे की, मेरा इश्वर इस बागीचे का माली है
तभी तो यहाँ इतनी खुशहाली है


अब जी नहीं करता की यहाँ से लौट जाऊं 
बादलों के साथ खेलूँ ,हवा से बतियाऊं और बस यहीं का हो जाऊं 
आया समझ में अब, की सपनो को पूरा करने के लिए यहाँ आना ज़रूरी है
इसलिए ज़िन्दगी की दौड़ में तूफ़ान से ज्यादा वेग लाना ज़रूरी है 


फकीरा


फकीरा 
ज़िन्दगी की दौड में मैं एक फकीरा सा,
मन में उम्मीद लिए चलता हूँ बघीरा सा
आँखों में मेरी एक सपना अधूरा सा,
बहते सागर में जैसे जहाज़ फितूर सा 

कभी बढ़ता हूँ उफान से,
लड़ता हुआ तूफ़ान से
कटता है कतरा फिर- तिल-तिल जान से,
जैसे आखिरी लौ हो चिरागे-शान से 

क्या मेरी नसीबे-ज़िन्दगी में लिखा यही? 
उठ के लड़ना और फिर गिरना यही,
समझ नहीं आता की क्या गलत और क्या सही?
करारे-इंतज़ार एक लरज़ती रोशनी नयी

ज़िन्दगी की दौड में मैं एक फकीर सा,
मन में उम्मीद लिए चलता हूँ बघीरा सा
आँखों में मेरी एक सपना अधूरा सा,
बहते सागर में जैसे जहाज़ फितूर सा

Sunday, July 11, 2010

चिंगारी

घर से दूर  एक चिंगारी मुझे बड़ा जलती है.
कहती है मैं याद हूँ,
और फिर गायब हो जाती है.
सोचता हूँ इस व्यस्तता में,
वो मेरे करीब क्यों नहीं आती.
वो कहती है,
तुम्हारी व्यस्तता ज्वलनशील है,
मुझ चिंगारी को नहीं भाति.
फिर एक दिन बारिश में, जब व्यस्तता भीग गयी
उस चिंगारी ने एक लौ बन के
मेरे मन को भुना सा कर दिया.
मैंने कहा की बोहत हुआ, खीच रा हूँ अपने घर की ओर,
ये तुमने क्या कर दिया.
तब चिंगारी ने मुझे संकेत दिया की अब लौट चलो,
बोहत हुआ व्यस्तता का नाटक.
कहीं इतनी देर में रुक जाए बारिश,
और फिर बंद न हो जाए तुम्हारे मन के फाटक.
लाख कोशिश के बाद भी इस द्वन्द को विराम देना न सिख पाया.
चिंगारी ने कहा तब, ये कर्म ही तो है जो तुम्हे तुम्हारे घर से दूर लाया.
यह सोचकर व्यस्तता में डूबने के बाद, चिंगारी मेरे करीब न आ सकी.
और फिर एक बार मेरे घर की याद मुझे न सता सकी.

Friday, July 9, 2010


सागरके तट से दूर क्षितिज तक अनगिनत थिरकती लहरें हैं,

लहरों के भीतर उस सागर के अरमान बड़े ही गहरे हैं।

तट पर न जाने कितनी प्रतिभाओं के अति रम्य महल और चेहरे हैं,

सागर की उफनती फोज के लिए उन महलों में न कोई पहरे हैं।

ज़िन्दगी की इस आजमयिश में, न जाने हम आगे बढ़कर क्यूँ ठहरे हैं,

क्या भय है सागर की लहरों का जिनके लिए न कोई पहरे हैं।

सागर के तट से दूर क्षितिज तक अनगिनत थिरकती लहरें हैं,

लहरों के भीतर उस सागर के अरमान बड़े ही गहरे हैं।


Wednesday, July 7, 2010

न जाने क्यों आज रोने का मन करता है.



न जाने क्यूँ आज रोने का मन करता है।


माला से टूटे हर मोती को नयी लड़ी में पिरोने का मन करता है।


मेरे मन पे लगे दागों को धोने का मन करता है।


न जाने क्यूँ आज रोने का मन करता है।


समझ नहीं पता की क्यों सब कुछ पके खोने का मन करता है।


मेरे सूखे हुए दिल को आज फिर अशकों से भिगोने का मन करता है।


न जाने क्यों आज रोने का मन करता है.